Thursday 17 December, 2009

जावेद साहब, टीवी वालों में ऐसा क्या है?

इंडिया हैबिटेट सेंटर में स्क्रिप्ट राइटिंग का वर्कशॉप चल रहा था। वर्कशॉप का वह आखिरी दिन था और बच्चों को स्क्रिप्ट राइटिंग का गुर सिखाने के लिए उस दिन जावेद अख्तर साहब आनेवाले थे। स्क्रिप्ट राइटिंग की दुनिया में जावेद साहब का नाम बड़े ही अदबके साथ लिया जाता है। बच्चों के साथ-साथ मैं भी जावेद साहब से मिलने के लिए उतावला हो रहा था। हमलोग उनका शिद्दत के साथ इंतजार कर रहे थे। इंतजार की घड़ियां काटे नहीं कट रही थीं। आखिरकार इंतजार की घड़ियां खत्म हुईं और जावेद साहब वर्कशॉप हॉल में दाखिल हुए। बच्चों ने जैसे ही उन्हें देखा, अपनी जगह पर खुशी से उछल पड़े। जावेद साहब ने आते ही बच्चों का अभिवादन किया और बच्चों को स्क्रिप्ट राइटिंग का फंडा सिखाने लगे|

उन्होंने बच्चों को स्क्रिप्ट राइटिंग के बहुत सारे टिप्स दिए और उनसे कई सवाल भी किए। बच्चों ने भी सवालों का बहुत ही विश्वास के साथ जवाब दिया। जावेद साहब उससे खुश भी दिखे। बच्चों के साथ जावेद साहब ने अपने संघर्ष के दिनों को भी याद किया और बताया कि कैसे उन्होंने कामयाबी हासिल की। लगभग 2 घंटे तक चला यह वर्कशॉप जब खत्म हुआ तो वह मीडिया से मुखातिब हो्ने के लिए आगे बढ़े।

चूंकि जावेद साहब एक बड़ी हस्ती हैं, इसलिए मीडियाकर्मियों का वहां पर अच्छा खासा हुजूम था। वह जैसे ही आगे बढ़े, प्रिंट मीडिया के पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया। पर जावेद साहब ने सभी प्रिंट मीडिया के पत्रकारों को कहा कि आप लोग रुक जाइए, पहले टीवी वालों से बात कर लेने दीजिए। यह कहकर जावेद साहब टीवी वालों से बात करने के लिए आगे बढ़ गए। यह देखकर मैं भक रह गया। भक तो सभी प्रिंट के पत्रकार भी थे। जिस जावेद साहब से मिलने के लिए मैं इतनी देर से बेकरार था और जिनके बारे में इतना कुछ सुन सका था, वह ऐसा करेंगे, मैंने सोचा नहीं था। इसके पहले मैं कई बड़ी हस्तियों से मिल चुका था, पर किसी ने ऐसी बात नहीं कही थी। जावेद साहब के इस बर्ताव के बाद मुझे वह कहावत याद आने लगी-हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और...।

Thursday 12 November, 2009

हिंदी तो सिर्फ बहाना है, राजनीति चमकाना है

उस दिन मैं सो रहा था, तभी मेरा मोबाइल बज उठा। फोन मेरे दोस्त विवेकानंद का था। देखते ही मैंने फोन उठाया, उधर से आवाज आई कि आपने टीवी देखा। मैंने कहा, नहीं। विवेकानंद ने कहा, टीवी ऑन कीजिए, देखिए कैसा तमाशा चल रहा है। मैंने चौंक कर पूछा क्या हुआ यार, बताओ तो। उसने कहा, आप खुद ही देख लीजिए। मैंने टीवी ऑन किया। देखा ब्रेकिंग चल रही थी। महाराष्ट्र विधानसभा में एमएनएस की गुंडागर्दी। विधायक राम कदम ने अबू आजमी को थप्पड़ मारा। हिंदी में शपथ लेने पर एमएनएस ने किया हंगामा। मैंने देखते ही कहा, यह तो होना ही था।

दरअसल, महाराष्ट्र विधानसभा में 9 नवंबर को जो कुछ हुआ उसकी भूमिका आज से दो साल पहले ही तैयार हो गई थी। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और समाजवादी पार्टी के बीच अपने-अपने वोट बैंक को रिझाने का यह योजनाबद्ध कार्यक्रम करीब दो साल पहले 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस मनाने से शुरू हुआ था। तब समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी ने उत्तर भारतीयों का पक्ष लेते हुए राज ठाकरे को चुनौती दी थी और हिंदी भाषी लोगों में सुरक्षा के लिए डंडे बंटवाये थे।

उसके कुछ ही दिन बाद आजमी ने तीसरे मोर्चे की रैली में एमएनएस के विरुद्ध जहर उगल कर उत्तर भारतीयों को एक बार फिर रिझाया था, तो उसी रैली में हिंदी भाषी लोगों पर हमला बोलकर एमएनएस कार्यकर्ताओं ने मराठी मानुस के दिल में जगह बनाने का प्रयास किया, जो अब तक जारी है। इस विवाद के चलते दोनों पार्टियों के पक्ष में वोटों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ। इस राजनीतिक ध्रुवीकरण का फायदा विधानसभा चुनावों में दोनों दलों को मिला। एमएनएस 13 सीटें जीतने में कामयाब रही तो समाजवादी पार्टी को 14 साल बाद 4 सीटें मिलीं।

भले ही पहली नज़र में हिंदी में शपथ लेने पर आजमी को थप्पड़ भाषायी राजनीति का हिस्सा लगता हो, पर परदे के पीछे का खेल वास्तव में सत्ता संघर्ष का है। मजे की बात यह है कि मराठी भाषा के नाम पर सदन में मारपीट करनेवाले एमएनएस के 13 विधायकों में से 8 के बच्चे मराठी मीडियम के स्कूल में नहीं बल्कि अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में पढ़ते हैं। यह है महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का मराठी प्रेम। मराठी से इनका वोट बैंक मजबूत होता है और अंग्रेजी से इनके बच्चों का भविष्य। इसी तरह हिंदी प्रेम के लिए थप्पड़ खानेवाले अबू आजमी के एक रिश्तेदार विधायक ने 1996 में यूपी विधानसभा में हिंदी में शपथ लेने से इनकार कर दिया था। उसने विधान सभा के सामने उर्दू में शपथ लेने के लिए धरना भी दिया। बाद में मुलायम सिंह के हस्तक्षेप के बाद उसने हिंदी में शपथ ली। तब अबू आजमी साहब कहां थे? तब उनका हिंदी प्रेम कहां था?

और आखिर में बात हिंदी की। असम हो या मणिपुर या महाराष्ट्र हिंदी बोलने वाला हर जगह प्रताड़ित है। ना जाने ऐसा क्यों है कि हिंदी बोलने वाला ही दूसरे राज्यों में रोजगार की तलाश में भटकता है। अब तो ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान में हिंदी बोलना ही गुनाह है।

Sunday 25 October, 2009

मैं किसी कीमत पर हिंदी नहीं बोलूंगी...

बात फरवरी 2006 की है। इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक पेंटिंग प्रदर्शनी का उद्घाटन होनेवाला था। चूंकि चित्रकार कोई खास नामी नहीं थीं, इसलिए उन्होंने शायद सोचा होगा क्यों न किसी फिल्मी हस्ती से ही इसका उद्घाटन कराया जाए। उन्होंने प्रदर्शनी का उद्घाटन कराने के लिए बॉलिवुड अदाकारा शर्मिला टैगोर को बुलाया था। मीडियाकर्मियों को जो आमंत्रण भेजे गए थे, उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा गया था कि इस प्रदर्शनी का उद्घाटन शर्मिला टैगोर करेंगी। चूंकि हम सेलिब्रिटी जर्नलिजम के दौर में जी रहे हैं, यही वजह थी कि उस दिन वहां पर कई चैनलवालों समेत बहुत सारे मीडियाकर्मी इस इवेंट को कवर करने पहुंचे। जागरण की तरफ से मैं भी वहां पहुंचा था। सारे मीडियाकर्मी शर्मिला टैगोर का इंतजार कर रहे थे। कुछ इंतजार के बाद शर्मिला टैगौर वहां पहुंचीं और उन्होंने उस पेटिंग प्रदर्शनी का उद्घाटन किया और प्रदर्शनी के बारे में अपने विचार को अंग्रेजी में रखा।

वहां बहुत सारे हिंदी चैनलवाले भी पहुंचे थे। वे भी सवाल पूछने लगे। संवाददाता हिंदी में सवाल कर रहे थे, पर शर्मिला टैगौर जवाब अंग्रेजी में दे रही थीं। इसी बीच एक संवाददाता ने कहा, मैडम जवाब हिंदी में दीजिए, क्योंकि हमारे दर्शक हिंदी को बखूबी समझते हैं। इस पर शर्मिला ने साफ कहा, मैं यहां पर हिंदी का सिंगल वर्ड भी नहीं बोलूंगी। मैं सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में बाइट्स दूंगी। आपको बाइट्स लेनी है तो लीजिए या जाइए, मैं तो सिर्फ अंग्रेजी ही बोलूंगी। इसी बीच एक टीवी चैनल की संवाददाता जो अब तक प्रदर्शनी की पेटिंग्स को कवर करने में लगी थी, वह दौड़ते-दौड़ते आई और बोली, मैडम बजट आनेवाला है, उसके बारे में अपनी राय दीजिए। इस पर शर्मिला ने अंग्रेजी में बोलना शुरू किया, संवाददाता ने उन्हें तुरंत टोका और कहा मैडम मेरा चैनल हिंदी में है और आप हिंदी में बाइट्स दीजिए। इस पर शर्मिला ने वही जवाब दिया, जो वह कुछ देर पहले दे चुकी थीं। शर्मिला का यह जवाब सुनकर हिंदी के सारे संवाददाता निराश हो गए।

मुझे भी शर्मिला टैगोर का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। अगर शर्मिला जी को हिंदी बोलने में दिक्कत होती, तो शायद हमें इस बात पर कोई तकलीफ नहीं होती। पर शर्मिला टैगोर आज जो भी हैं, वह बॉलिवुड फिल्मों की वजह से ही हैं और मेरी जहां तक जानकारी है, उन्होंने बॉलिवुड में जितनी भी फिल्में की हैं, वे सारी फिल्में हिंदी भाषा में बनी हैं। मुझे जहां तक पता है शर्मिला टैगोर की हिंदी इतनी ठीक जरूर है कि वह खुद के विचारों को इस भाषा में व्यक्त कर सकें। हां, कुछ लोग यह जरूर सवाल उठा सकते हैं कि शर्मिला टैगोर किसी भी भाषा में बोलने के लिए आजाद हैं और अगर वह अंग्रेजी में बोलती हैं तो इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर दोस्तो, अगर उनसे निवेदन किया जाए और इसके बाद भी वह हिंदी में नहीं बोलें, यह तो कहीं से भी सही नहीं है न। अगर वह हॉलिवुड की हीरोइन रहतीं तो शायद इससे किसी को भी ऐतराज नहीं होता, पर वह तो हिंदी फिल्मों की हीरोइन हैं न। आज वह जिस मुकाम पर हैं, वह सिर्फ और सिर्फ हिंदी फिल्मों की वजह से।

शर्मिला जी ने उस दिन जो थप्पड़ हिंदी रिपोर्टर्स के मुंह पर मारा था, ऐसा लगता है कि उसके निशान आज भी मेरे गाल पर हैं । जब भी मैं अपना चेहरा आईना में देखता हूं, तो वह निशान मुझे न चाहते हुए भी दिख जाते हैं।