Saturday 10 September, 2016

…क्योंकि इस डर के आगे जिंदगी है

हॉलिवुड की एक फिल्म है- Cast Away। इस फिल्म में नायक टॉम हैंक्स एक कुरियर कंपनी में काम करता है। एक दिन कुरियर ले जाते वक्त उसका प्लेन खराब मौसम के चलते क्रैश कर जाता है और समुद्र में गिर जाता है। टॉम हैंक्स को जब होश आता है, तो वह खुद को एक निर्जन आइलैंड पर पाता है। वहां पर जीवित रहने की संभावना न के बराबर है, फिर भी वह हिम्मत नहीं हारता है और खुद को जिंदा रखने के लिए संघर्ष करता है। वह इस आइलैंड पर पूरे 4 साल तक रहता है और हर मुश्किल का सामना बड़ी बहादुरी के साथ करता है। काफी संघर्ष करने के बाद वह फिर अपनी दुनिया में वापस आता है। घर वापस आने पर उसे यहां की मुश्किलें काफी आसान लगने लगती हैं। वह सोचता है कि वहां पर जिंदगी कितनी मुश्किल थी और यहां पर कितनी आसान, फिर भी यहां लोग टेंशन में रहते हैं और उनपर डिप्रेशन हावी है।

महानगरीय जीवन पर टेंशन इस कदर हावी है कि कोई भी शख्स इससे अछूता नहीं है। भविष्य में कोई मुश्किल न आ जाए, इसलिए हम अभी तरह-तरह के उपाय करते हैं और उन आनेवाली मुश्किलों (जो 95 फीसदी मामलों में आती ही नहीं हैं) को लेकर भयानक टेंशन में रहते हैं।

जब हम महानगरीय टेंशन की समस्या पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण काल्पनिक डर है। इसका एक उदाहरण मैं देता हूं। मेरा एक दोस्त है जिसने देश के टॉप इंस्टिट्यूट से एमबीए किया है। वह घर से इतना मजबूत है कि नौकरी चली भी जाए तो उसपर कोई असर नहीं पड़ेगा। लेकिन वह नौकरी जाने के काल्पनिक डर से इतना परेशान रहता है कि उसकी पत्नी और बेटा हमेशा टेंशन में रहते हैं। सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि पिछले 8 सालों से वह नौकरी कर रहा है और आज तक उसकी नौकरी नहीं गई है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वह इतना हुनरमंद है कि आगे भी उसकी नौकरी नहीं जाएगी। लेकिन पिछले 8 सालों में मैंने उसके परिवार को कभी खुश भी नहीं देखा है।

इसी तरह मेरा एक और मित्र है। वह देश के टॉप सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करता है। पिछले साल वह अपने प्रोमोशन को लेकर काफी परेशान था। उसे लगता था कि उसका प्रोमोशन इस बार होगा लेकिन मन के अंदर यह काल्पनिक डर था कि कहीं ऐन वक्त पर कोई गड़बड़ न हो जाए। इस चक्कर में वह काफी परेशान रहने लगा था। उसने घर के माहौल को कुछ इस कदर बना दिया था कि घर और ऑफिस में कोई अंतर नहीं रह गया था। घरवालों को उसने इतना टेंशन दिया कि उन्होंने एक दिन मुझे फोन करके बुलाया और उसे समझाने के लिए कहा। उसके पिताजी ने कहा कि अपने इस दोस्त को समझाइए कि हमें इनका प्रोमोशन नहीं चाहिए। हमें चाहिए घर का सुख और उसकी शांति। मजे कि बात यह है कि कुछ ही हफ्तों बाद उसके प्रोमोशन का लेटर आ गया। लेकिन काल्पनिक डर की वजह से उसने 3-4 महीने तक अपने घर के माहौल को नारकीय बना दिया था।

दरअसल, हम इस काल्पनिक डर से इतने परेशान हैं कि हमें लगने लगता है कि टेंशन जीवन का स्थायी अंग है। कुछ मामलों में यह डर इतना बढ़ जाता है कि वह डिप्रेशन के रूप में तब्दील हो जाता है। तो दोस्तो, मन का दरवाजा खोलिए और सदा के लिए निकाल दीजिए इस काल्पनिक डर को क्योंकि इस डर के आगे जिंदगी है।

साभारः nbt.in



Tuesday 21 October, 2014

लेखक बनोगो, खाने के लाले पड़ जाएंगे

क्लास में सभी स्टूडेंट्स नए प्रफेसर का इंतजार कर रहे थे। कुछ देर बाद नए प्रफेसर साहब क्लास में प्रवेश किए। आते ही उन्होंने कहा कि आज मेरा पहला दिन है, चलिए सबसे पहले आपलोगों के परिचय से क्लास की शुरुआत करते हैं। उन्होंने कहा कि आप लोग अपना नाम और जीवन में क्या बनना चाहते हैं, जरूर बताइएगा। पहली लाइन में बैठे स्टूडेंट अपना नाम और उन्हें क्या बनना है, बताने लगे। कोई कहता मैं इंजीनियर बनूंगा, कोई कहता मैं डॉक्टर बनूंगा, कोई कहता मैं आईएएस बनूंगा कोई आईपीएस। ऐसे ही क्लास में ये शब्द बार-बार सुनने को मिल रहे थे। प्रोफेसर साहब ये सारे शब्द सुनकर काफी खुश होते और गर्व के भाव से उन बच्चों की तरफ देखते। अब नंबर पिछली लाइन में बैठे स्टूडेंट्स का था। मैंने अपना परिचय दिया और कहा कि मैं लेखक बनना चाहता हूं। सर के चेहरे पर तुरंत व्यंग के भाव आ गए। उन्होंने कहा, अच्छा तो आप का जैसा नाम है, कुछ वैसा ही करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि बड़ी कठिन डगर होती है लेखकों की, पर मेहनत करेंगे तो कुछ तो आपको जरूर मिल जाएगा। मेरे बगल में मेरा दोस्त बैठा था, उसने परिचय दिया और कहा कि मैं पत्रकार बनना चाहता हूं। उसने जैसे ही कहा, सर हंसने लगे और कहा कि पत्रकार बनना चाहते हो, खाने के लाले पड़ जाएंगे। देख रहे हो न यहां के पत्रकारों को ‘दलाली’ करके अपना पेट पाल रहे हैं ( दरअसल उनका इशारा स्ट्रींगर की तरफ था)। इसके बाद रिया त्रिपाठी का नंबर आया। वह जैसे ही खड़ा हुईं, वैसे सर ने कहा कि आप तो दार्शनिक बनना चाहती होंगी, क्योंकि आपके बेंच पर बैठे एक शख्स लेखक बनना चाहते हैं, दूसरे पत्रकार तो जाहिर है कि आप दार्शनिक बनना चाहती होंगी। उन्होंने कहा कि सर आपने तो मेरे मन की बात जान ली। इस पर सर बिफर पड़े और कहा कि पता नहीं इस क्लास में ये तीन लोग कहां से आ गए हैं। इस पर मेरे दोस्त ने पूछा कि सर आखिर अपने समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस और मैनेजमेंट को ही सफलता की निशानी क्यों माना जाता है? क्या हम कुछ दूसरा नहीं कर सकते हैं? सर ने बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा कि तुम लोग अभी बच्चे हो, दुनिया नहीं देखी है। जिस दिन देखोगे उस दिन वक्त के आगे तुरंत घुटना टेक दोगे। उन्होंने कहा कि डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस और मैनेजमेंट को सफलता की निशानी इसलिए माना जाता है क्योंकि इसमें पैसा और पावर है, समाज की नजरों में सफल जीवन जीने के लिए ये दोनों काफी जरूरी हैं। इस पर मेरा दोस्त बोला, सर आपने सही कहा कि समाज की नजरों में सफल जीवन जीने के लिए ये दोनों जरूरी हैं, पर हमें समाज की नजरों में सफल जीवन न जीना हो तो? अगर हम कहें कि ये दोनों चीजें हमें नहीं चाहिए तो? इस पर सर गुस्से से पागल हो गए और कहा कि अभी तक तो मैं समझ रहा था कि तुम्हारे पास अक्ल नहीं अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम बेवकूफ और बदतमीज के साथ-साथ पागल भी हो। तुम मुझसे तर्क कर रहे हो, मैं घास छीलकर यहां नहीं आया हूं। तुम जैसे लड़के की औकात नहीं है कि मुझसे इस कदर बात करो।
पर मेरा दोस्त रुकने वाला नहीं था। उसने आगे कहा, सर जहां तक मेरा मानना है कि डॉक्टरी, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट एक प्रकार का प्रशिक्षण है। इससे स्कील तो डवलप होता है, पर बौद्धिक विकास हो, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है। जैसा कि आपने कहा कि इसमें पैसे बहुत हैं, तो मैं एक बिजनेस फैमिली से आता हूं, मुझे अगर पैसा ही कमाना होता तो मैं बिजनेस ही करता न उसमें ज्यादा पैसा है। उसने कहा कि सर हमें डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट पढ़ने वालों से कोई दिक्कत नहीं है। मैं उनकी इज्जत करता हूं, पर मैं जो करना चाहता हूं उससे तो मुझे किसी को रोकने का कोई अधिकार नहीं है। उसने आगे कहा, दरअसल समाज ने कुछ खोखले मानदंड तय किए हैं, जिसे तथाकथित पढ़े लिखे लोग ढो रहे हैं। हमारी प्रवृति ही ऐसी है कि हम पैसा और पावर चाहते हैं और एक दूसरे से खुद को ऊंचा दिखाने में गर्व महसूस करते हैं। उसने कहा कि अगर इस देश में भ्रष्टाचार है तो इसका एक प्रमुख कारण यह प्रवृति भी है। मुझे दुख है कि आप इसी प्रवृति का समर्थन कर रहे हैं। इतना सुनने के बाद सर भड़क गए। उन्होंने तुरंत मेरे दोस्त को क्लास से बाहर निकाल दिया और कहा कि आप मेरे क्लास में फिर कभी दिखाई नहीं देना। अब बारी रिया त्रिपाठी की थी। उन्होंने कहा कि आप दार्शनिक बनना चाहती हैं न, जरूर बनिए। वैसे भी आप लड़की हैं, आपको तो घर चलाना नहीं है, आप जो मन करे करें। उन्होंने उसका जोरदार विरोध किया। मैंने भी कहा कि सर आपको लिंग के आधार पर किसी को नीचा दिखाने का कोई हक नहीं है। सर ने कहा कि आप दोनों भी क्लास से बाहर जाइए, आप लोग फिर मेरे क्लास में दिखाई मत दीजिएगा। हम तीनों क्लास से बाहर हो गए और कभी भी उनके क्लास में नहीं गए। बाद में सुना कि उस सर ने काफी तरक्की की और हेड ऑफ द डिपार्टमेंट बनकर रिटायर हुए।

ये बातें इसलिए याद आ गईं क्योंकि मेरे उस दोस्त का एक दो दिन पहले फोन आया था और उसने बताया कि रिया त्रिपाठी आजकल दर्शन शास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर हैं और उनका नंबर दिया। रिया से बात हुई और उस दिन को याद करके हम लोग खूब हंसे। बातों-बातों में मैंने रिया से पूछा कि आपने शादी कर ली, उन्होंने कहा कि नहीं यार, मुझे सर की बात अभी तक याद है कि मैं तो लड़की हूं और मुझे घर थोड़ी ही चलाना है। उन्होंने मुझसे सवाल किया कि क्या इस देश में लड़की का स्वतंत्र जीवन नहीं हो सकता? क्या किसी लड़की को जीवन जीने के लिए पुरुष का हाथ थामना जरूरी है। क्या हम अपने जीवन का खुद मुख्तार नहीं बन सकते। मैंने कहा, क्यों नहीं। यह जीवन आपका है और आप जिस तरह से जीना चाहें, वह आपका एकाधिकार है। पिछले दो-तीन दिनों से मैं सोच रहा हूं कि ऐसा क्यों है कि हमने जीवन में सफलता के कुछ मानदंड तय कर दिए हैं और हर शख्स को उसी मानदंड पर खरा उतरना होता है, अगर वह खरा उतरा तो सफल और अगर नहीं तो असफल। पता नहीं यह सब कब बदलेगा और कब हम लोग सुधरेंगे और अन्य प्रफेशन की इज्जत करना सीखेंगे।

Thursday 17 December, 2009

जावेद साहब, टीवी वालों में ऐसा क्या है?

इंडिया हैबिटेट सेंटर में स्क्रिप्ट राइटिंग का वर्कशॉप चल रहा था। वर्कशॉप का वह आखिरी दिन था और बच्चों को स्क्रिप्ट राइटिंग का गुर सिखाने के लिए उस दिन जावेद अख्तर साहब आनेवाले थे। स्क्रिप्ट राइटिंग की दुनिया में जावेद साहब का नाम बड़े ही अदबके साथ लिया जाता है। बच्चों के साथ-साथ मैं भी जावेद साहब से मिलने के लिए उतावला हो रहा था। हमलोग उनका शिद्दत के साथ इंतजार कर रहे थे। इंतजार की घड़ियां काटे नहीं कट रही थीं। आखिरकार इंतजार की घड़ियां खत्म हुईं और जावेद साहब वर्कशॉप हॉल में दाखिल हुए। बच्चों ने जैसे ही उन्हें देखा, अपनी जगह पर खुशी से उछल पड़े। जावेद साहब ने आते ही बच्चों का अभिवादन किया और बच्चों को स्क्रिप्ट राइटिंग का फंडा सिखाने लगे|

उन्होंने बच्चों को स्क्रिप्ट राइटिंग के बहुत सारे टिप्स दिए और उनसे कई सवाल भी किए। बच्चों ने भी सवालों का बहुत ही विश्वास के साथ जवाब दिया। जावेद साहब उससे खुश भी दिखे। बच्चों के साथ जावेद साहब ने अपने संघर्ष के दिनों को भी याद किया और बताया कि कैसे उन्होंने कामयाबी हासिल की। लगभग 2 घंटे तक चला यह वर्कशॉप जब खत्म हुआ तो वह मीडिया से मुखातिब हो्ने के लिए आगे बढ़े।

चूंकि जावेद साहब एक बड़ी हस्ती हैं, इसलिए मीडियाकर्मियों का वहां पर अच्छा खासा हुजूम था। वह जैसे ही आगे बढ़े, प्रिंट मीडिया के पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया। पर जावेद साहब ने सभी प्रिंट मीडिया के पत्रकारों को कहा कि आप लोग रुक जाइए, पहले टीवी वालों से बात कर लेने दीजिए। यह कहकर जावेद साहब टीवी वालों से बात करने के लिए आगे बढ़ गए। यह देखकर मैं भक रह गया। भक तो सभी प्रिंट के पत्रकार भी थे। जिस जावेद साहब से मिलने के लिए मैं इतनी देर से बेकरार था और जिनके बारे में इतना कुछ सुन सका था, वह ऐसा करेंगे, मैंने सोचा नहीं था। इसके पहले मैं कई बड़ी हस्तियों से मिल चुका था, पर किसी ने ऐसी बात नहीं कही थी। जावेद साहब के इस बर्ताव के बाद मुझे वह कहावत याद आने लगी-हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और...।

Thursday 12 November, 2009

हिंदी तो सिर्फ बहाना है, राजनीति चमकाना है

उस दिन मैं सो रहा था, तभी मेरा मोबाइल बज उठा। फोन मेरे दोस्त विवेकानंद का था। देखते ही मैंने फोन उठाया, उधर से आवाज आई कि आपने टीवी देखा। मैंने कहा, नहीं। विवेकानंद ने कहा, टीवी ऑन कीजिए, देखिए कैसा तमाशा चल रहा है। मैंने चौंक कर पूछा क्या हुआ यार, बताओ तो। उसने कहा, आप खुद ही देख लीजिए। मैंने टीवी ऑन किया। देखा ब्रेकिंग चल रही थी। महाराष्ट्र विधानसभा में एमएनएस की गुंडागर्दी। विधायक राम कदम ने अबू आजमी को थप्पड़ मारा। हिंदी में शपथ लेने पर एमएनएस ने किया हंगामा। मैंने देखते ही कहा, यह तो होना ही था।

दरअसल, महाराष्ट्र विधानसभा में 9 नवंबर को जो कुछ हुआ उसकी भूमिका आज से दो साल पहले ही तैयार हो गई थी। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और समाजवादी पार्टी के बीच अपने-अपने वोट बैंक को रिझाने का यह योजनाबद्ध कार्यक्रम करीब दो साल पहले 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस मनाने से शुरू हुआ था। तब समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी ने उत्तर भारतीयों का पक्ष लेते हुए राज ठाकरे को चुनौती दी थी और हिंदी भाषी लोगों में सुरक्षा के लिए डंडे बंटवाये थे।

उसके कुछ ही दिन बाद आजमी ने तीसरे मोर्चे की रैली में एमएनएस के विरुद्ध जहर उगल कर उत्तर भारतीयों को एक बार फिर रिझाया था, तो उसी रैली में हिंदी भाषी लोगों पर हमला बोलकर एमएनएस कार्यकर्ताओं ने मराठी मानुस के दिल में जगह बनाने का प्रयास किया, जो अब तक जारी है। इस विवाद के चलते दोनों पार्टियों के पक्ष में वोटों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ। इस राजनीतिक ध्रुवीकरण का फायदा विधानसभा चुनावों में दोनों दलों को मिला। एमएनएस 13 सीटें जीतने में कामयाब रही तो समाजवादी पार्टी को 14 साल बाद 4 सीटें मिलीं।

भले ही पहली नज़र में हिंदी में शपथ लेने पर आजमी को थप्पड़ भाषायी राजनीति का हिस्सा लगता हो, पर परदे के पीछे का खेल वास्तव में सत्ता संघर्ष का है। मजे की बात यह है कि मराठी भाषा के नाम पर सदन में मारपीट करनेवाले एमएनएस के 13 विधायकों में से 8 के बच्चे मराठी मीडियम के स्कूल में नहीं बल्कि अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में पढ़ते हैं। यह है महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का मराठी प्रेम। मराठी से इनका वोट बैंक मजबूत होता है और अंग्रेजी से इनके बच्चों का भविष्य। इसी तरह हिंदी प्रेम के लिए थप्पड़ खानेवाले अबू आजमी के एक रिश्तेदार विधायक ने 1996 में यूपी विधानसभा में हिंदी में शपथ लेने से इनकार कर दिया था। उसने विधान सभा के सामने उर्दू में शपथ लेने के लिए धरना भी दिया। बाद में मुलायम सिंह के हस्तक्षेप के बाद उसने हिंदी में शपथ ली। तब अबू आजमी साहब कहां थे? तब उनका हिंदी प्रेम कहां था?

और आखिर में बात हिंदी की। असम हो या मणिपुर या महाराष्ट्र हिंदी बोलने वाला हर जगह प्रताड़ित है। ना जाने ऐसा क्यों है कि हिंदी बोलने वाला ही दूसरे राज्यों में रोजगार की तलाश में भटकता है। अब तो ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान में हिंदी बोलना ही गुनाह है।

Sunday 25 October, 2009

मैं किसी कीमत पर हिंदी नहीं बोलूंगी...

बात फरवरी 2006 की है। इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक पेंटिंग प्रदर्शनी का उद्घाटन होनेवाला था। चूंकि चित्रकार कोई खास नामी नहीं थीं, इसलिए उन्होंने शायद सोचा होगा क्यों न किसी फिल्मी हस्ती से ही इसका उद्घाटन कराया जाए। उन्होंने प्रदर्शनी का उद्घाटन कराने के लिए बॉलिवुड अदाकारा शर्मिला टैगोर को बुलाया था। मीडियाकर्मियों को जो आमंत्रण भेजे गए थे, उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा गया था कि इस प्रदर्शनी का उद्घाटन शर्मिला टैगोर करेंगी। चूंकि हम सेलिब्रिटी जर्नलिजम के दौर में जी रहे हैं, यही वजह थी कि उस दिन वहां पर कई चैनलवालों समेत बहुत सारे मीडियाकर्मी इस इवेंट को कवर करने पहुंचे। जागरण की तरफ से मैं भी वहां पहुंचा था। सारे मीडियाकर्मी शर्मिला टैगोर का इंतजार कर रहे थे। कुछ इंतजार के बाद शर्मिला टैगौर वहां पहुंचीं और उन्होंने उस पेटिंग प्रदर्शनी का उद्घाटन किया और प्रदर्शनी के बारे में अपने विचार को अंग्रेजी में रखा।

वहां बहुत सारे हिंदी चैनलवाले भी पहुंचे थे। वे भी सवाल पूछने लगे। संवाददाता हिंदी में सवाल कर रहे थे, पर शर्मिला टैगौर जवाब अंग्रेजी में दे रही थीं। इसी बीच एक संवाददाता ने कहा, मैडम जवाब हिंदी में दीजिए, क्योंकि हमारे दर्शक हिंदी को बखूबी समझते हैं। इस पर शर्मिला ने साफ कहा, मैं यहां पर हिंदी का सिंगल वर्ड भी नहीं बोलूंगी। मैं सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में बाइट्स दूंगी। आपको बाइट्स लेनी है तो लीजिए या जाइए, मैं तो सिर्फ अंग्रेजी ही बोलूंगी। इसी बीच एक टीवी चैनल की संवाददाता जो अब तक प्रदर्शनी की पेटिंग्स को कवर करने में लगी थी, वह दौड़ते-दौड़ते आई और बोली, मैडम बजट आनेवाला है, उसके बारे में अपनी राय दीजिए। इस पर शर्मिला ने अंग्रेजी में बोलना शुरू किया, संवाददाता ने उन्हें तुरंत टोका और कहा मैडम मेरा चैनल हिंदी में है और आप हिंदी में बाइट्स दीजिए। इस पर शर्मिला ने वही जवाब दिया, जो वह कुछ देर पहले दे चुकी थीं। शर्मिला का यह जवाब सुनकर हिंदी के सारे संवाददाता निराश हो गए।

मुझे भी शर्मिला टैगोर का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। अगर शर्मिला जी को हिंदी बोलने में दिक्कत होती, तो शायद हमें इस बात पर कोई तकलीफ नहीं होती। पर शर्मिला टैगोर आज जो भी हैं, वह बॉलिवुड फिल्मों की वजह से ही हैं और मेरी जहां तक जानकारी है, उन्होंने बॉलिवुड में जितनी भी फिल्में की हैं, वे सारी फिल्में हिंदी भाषा में बनी हैं। मुझे जहां तक पता है शर्मिला टैगोर की हिंदी इतनी ठीक जरूर है कि वह खुद के विचारों को इस भाषा में व्यक्त कर सकें। हां, कुछ लोग यह जरूर सवाल उठा सकते हैं कि शर्मिला टैगोर किसी भी भाषा में बोलने के लिए आजाद हैं और अगर वह अंग्रेजी में बोलती हैं तो इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर दोस्तो, अगर उनसे निवेदन किया जाए और इसके बाद भी वह हिंदी में नहीं बोलें, यह तो कहीं से भी सही नहीं है न। अगर वह हॉलिवुड की हीरोइन रहतीं तो शायद इससे किसी को भी ऐतराज नहीं होता, पर वह तो हिंदी फिल्मों की हीरोइन हैं न। आज वह जिस मुकाम पर हैं, वह सिर्फ और सिर्फ हिंदी फिल्मों की वजह से।

शर्मिला जी ने उस दिन जो थप्पड़ हिंदी रिपोर्टर्स के मुंह पर मारा था, ऐसा लगता है कि उसके निशान आज भी मेरे गाल पर हैं । जब भी मैं अपना चेहरा आईना में देखता हूं, तो वह निशान मुझे न चाहते हुए भी दिख जाते हैं।